“हे राम…….” ये गाँधी के मुँह से निकले अंतिम शब्द हैं। इस प्रसंग की अक्सर चर्चा होती है कि गाँधी ने ऐसा कहा था कि जब वे शरीर त्यागें तब जुबान पर राम का ही नाम हो। गाँधी के अत्यंत प्रिय भजनों में दो ऐसे हैं जिनमें राम का जिक्र आता है।उनकी प्रार्थना सभाओं में गाये जाने वाले भजनों में एक भजन है- वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड़ परायी जाने रे ..। नरसी मेहता रचित इस भजन में एक पंक्ति आती है – राम नाम सुन ताळी लागी सकळ तिरथ तेना तन मा रे…। वैसे तो राम स्वयं विष्णु के अवतारों में से एक हैं। इसी तरह लक्ष्मणाचार्य रचित भजन – रघुपति राघव राजा राम पतित पावन सीता राम.. भी गाँधी की प्रार्थना सभाओं का हिस्सा रहा है। गाँधी के प्रिय ग्रंथों में से एक तुलसीकृत रामचरित मानस रहा है। ये प्रसंग गाँधी के जीवन के राम के जुड़ाव को बयान करते हैं। परंतु प्रश्न यह है कि गाँधी के राम कौन हैं, जो उनकी दिनचर्या में इस कदर वर्तमान हैं!
वर्ष 1915 में जब मोहनदास करमचंद गाँधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे तो गोपाल कृष्ण गोखले से मिले। हालांकि उनका परिचय डेढ़ दशक पुराना था, तब गाँधी भारत के बाहर थे। आनेवाले दिनों में भारत भूमि गाँधी का कर्मक्षेत्र बनने वाली थी। इससे पहले कि वे यहाँ के सार्वजनिक जीवन में उतरें, गोखले ने उन्हें भारत का वास्तविक चरित्र समझने के लिए भारत भ्रमण का सुझाव दिया। गाँधी के इस देशाटन की कहानियाँ हम सुनते रहे हैं। एक सोशल एक्टिविस्ट से गाँधी के स्वतंत्रता सेनानी बनने में इन यात्राओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
बिहार के चंपारण में सत्याग्रह (1917) शुरू करने से पहले इन यात्राओं के जरिये गाँधी भारत के सामाजिक यथार्थ और इसकी बहुलतावादी विशेषताओं को समझ चुके थे। लोक जीवन में व्याप्त आध्यात्मिक मान्यताओं और परंपराओं से उनका साक्षात्कार हुआ था। इसका प्रभाव उनकी दिनचर्या और जीवन दर्शन में दिखने लगा था। स्वदेशी आंदोलन के दरम्यान (1921) तो उन्होंने विलायती पहनावा उतार कर सिर्फ धोती और एक चादर अपना लिया। अपनी एक रेल यात्रा के प्रसंग में वे लिखते हैं, “मैंने रेल की भीड़ को देखा कि उन लोगों को स्वदेशी मूवमेंट से कोई लेना-देना नहीं। वो विदेशी कपड़े पहने हुए थे। जब मैंने उनसे बात की तो कइयों ने कहा कि उनके लिए महँगा खादी खरीदना मुमकिन नहीं था। मैंने टोपी, पूरी धोती और कमीज़ पहनी हुई थी। तब मैंने सोचा इसका क्या उत्तर दे सकता हूँ सिवाय इसके कि शालीनता के दायरे में रहते हुए मैं अपने शरीर पर मौजूद वस्त्र को त्याग दूँ और खुद को इन लोगों के समकक्ष ले आऊँ..।”
लोक को समझने और उसके अनुरूप ढल जाने की यह सरलता और संवेदनशीलता हमें राम के चरित्र में भी दिखती है (केवट और शबरी प्रसंग)। वे नायक हैं परंतु उनमें नायकत्व का अहंकार नहीं दिखता। उनमें तमाम दुश्वारियों के प्रति असीम धैर्य है, समता का भाव है, कुशल प्रबंधन है। वे वानर भालुओं में भरोसा जगाकर एक कुशल सेना खड़ी कर लेते हैं। गाँधी में भी कुछ उसी तरह की सरलता, सौम्यता और परिस्थियों के समक्ष डटकर खड़े होने का संकल्प दिखता है। वे आम लोगों में अद्भुत भरोसा जगाते हैं। हाशिये पर खड़े लोगों को मुख्यधारा में लाते हैं, उन्हें मान-सम्मान देते हैं। ऐसा लगता है कि बचपन में ही जिन राम से उनका परिचय कराया जाता है वे उनको मन, कर्म और वचन से अपने जीवन में उतारते दिखते हैं। क्योंकि उन्हें राम पर भरोसा है, राम नाम में उनकी अटूट श्रद्धा है।
गौर करें तो गाँधी का जीवन चरित जाने-अनजाने राम के संघर्ष का एक प्रतिरूप लगता है- रावण रथी विरथ रघुवीरा। कहाँ अंग्रेजी साम्राज्य और उसके समक्ष सत्य, अहिंसा का चरखा चलाता अधनंगा फकीर!
स्वतंत्रता आंदोलन की यात्रा में गाँधी की निर्भयता और दृढ़ संकल्प के प्रेरणा पूँज राम ही हैं। इसकी स्वीकृति गाँधी वांग्मय में कई जगह दिखती है। वे राम की तरह ही करुणा, त्याग, प्रेम और तप को अपना मूल्य बनाते हैं। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपने संकल्प से नहीं डिगते। परंतु गाँधी के राम, जनमानस में प्रचलित दशरथ पुत्र राम हैं क्या? 18 मार्च, 1933 के हरिजन में वे लिखते हैं, “ईश्वर को मैं सत्य रूप में पहचानता हूँ और सत्य को राम के नाम से पहचानता हूँ। मेरे परीक्षण के सबसे जटिल काल में उस एक नाम ने मुझे बचाया है और अभी भी मुझे बचा रहा है।“ ऐसा कहते हुए वे जनजीवन में व्याप्त कथा के पात्र से ऊपर राम की सर्वव्याप्त सत्ता की ओर ईशारा करते हैं। उनके राम किसी दायरे में संकुचित राम नहीं हैं- वे करुणा निधान हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। और वे इस मर्यादा पुरुषोत्म के आदर्शों को अपने जीवन में उतारते दिखते हैं।
आज़ादी के कुछ महीनों पहले जब देश में ईश्वर के नाम पर टकराव होने लगे तब उन्होंने कहा, “राम नाम को दोहराना और वास्तविक अभ्यास में रावण मार्ग का अनुसरण करना बेकार से भी बदतर है। सरासर पाखंड है। कोई खुद को और दुनिया को धोखा दे सकता है किन्तु कोई सर्वशक्तिमान ईश्वर को धोखा नहीं दे सकता।” उनके लिए राम आत्मा के प्रकाश हैं।
गाँधी वांग्मय में इसका स्पष्ट उल्लेख है कि मंदिर जाना और भय की स्थिति में में भगवत्भजन, प्रभु स्मरण का मंत्र उन्हें पारिवारिक परिवेश से मिला। परंतु दुनिया के कई देशों के भ्रमण दूसरी संस्कृतियों के संपर्क एवं उनकी नजदीकी पड़ताल और लगातार आत्मविश्लेषण की उनकी वृत्ति ने उन्हें ईश्वरीय शक्ति की सर्वव्यापकता की अनुभूति तक ले गया।
भारतीय परंपराओं का जो साक्षात्कार उन्होंने अपनी यात्राओं में किया, निश्चय ही उनको इस निष्कर्ष तक पहुँचाने में मदद मिली होगी। वैदिक काल से लेकर अब तक के विचारकों, चिंतकों की एक श्रृंखला है जिसमें वे इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि सत्य एक है रास्ते अलग- एकं सद विप्रा बहुधा वदंति। यह जो एक सत्य है जिसे ज्ञानी जनों ने अलग-अलग तरीके से देखा है, अलग-अलग नाम दिये हैं। किसी के लिए वे राम हैं तो किसी और के लिए रहीम। किसी के लिए जीसस हैं तो किसी के लिए कृष्ण। विष्णु पुराण में भक्त प्रह्लाद की कथा के संदर्भ में यह प्रचलित कथन है कि- हममें तुममें खड्ग खंभ में सबमें व्यापै राम। गाँधी के यहाँ राम इसी व्यापक अर्थ में मौजूद दिखते हैं। जो सर्वव्यापी है, वह महज एक रंग, रूप, क्षेत्र या संप्रदाय तक सीमित नहीं है। वह घट-घट में है।
28 अप्रैल 1946 के हरिजन में उन्होंने लिखा, “ मैं अपने भीतर हँसता हूँ जब कोई राम या जप का विरोध करता है और कहता है कि राम नाम केवल हिन्दुओं के लिए है। इसलिये इसमें मुसलमान कैसे भाग ले सकते हैं? क्या एक भगवान मुसलमानों के लिये और एक भगवान हिन्दुओं के लिये, एक पारसियों के लिए और एक ईसाइयों के लिए हैं? नहीं, केवल एक ही सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी ईश्वर है। वह विभिन्न नामों से जाना जाता है और हम उसे उस नाम से याद करते हैं जिससे हम परिचित हैं।”
ईश्वरीय शक्ति की इसी व्यापकता को केन्द्र में रखते हुए उन्होंने रामराज्य की कल्पना की। राम राज्य से उनका तात्पर्य सत्य और अच्छाई के राज्य से है। जिसमें दूसरे की पीड़ा समझने की संवेदना है, करुणा है। 1929 के यंग इंडिया में वे लिखते हैं, “राम राज्य से मेरा मतलब हिंदू राज्य से नहीं है। मेरा मतलब है ईश्वरीय राज्य, दिव्य राज्य। मेरे लिए राम और रहीम एक ही देवता हैं। मैं किसी अन्य देवता को नहीं बल्कि सत्य और अच्छाई के एक ईश्वर को स्वीकार करता हूँ।“
तुलसी के रामराज्य के वर्णन को देखें तो गाँधी की बात स्पष्ट हो जाती है-
नहीं दरिद्र कोउ दुखी न दीना, नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना
दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज नहिं काहुहिं ब्यापा।।
इस राज्य में कोई भेद-भाव नहीं है। सबके समर्थ और योग्य होने, निरोग रहने की कल्पना की गयी है। गाँधी के राम राज्य में लोकतंत्र की उदात्त अभिव्यक्ति दिखती है। वह व्यक्ति व समाज में हर तरह के विभाजनों और असमानताओं को खत्म करने वाला है। इस तरह हम देखते हैं कि जिन राम से गाँधी का परिचय उनकी आया द्वारा भय से मुक्त करने वाले नाम के रूप में कराया जाता है। वह उनके जीवन का अमोघ मंत्र बन जाता है। और उन्हें सकल समाज ही नहीं बल्कि पूरी मनुष्यता को निर्भय करने की यात्रा पर ले जाता है।

बीएचयू, वाराणसी में पढ़ाई के बाद जनसत्ता, कोलकाता और प्रभात खबर, राँची के साथ सक्रिय पत्रकारिता। आईआईएमसी, दिल्ली से अकादेमिक भूूमिका की शुरुआत। वर्तमान में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग में वरिष्ठ सहायक अध्यापक।