जाति, बाहुबल के बीच विकसित बिहार के सपने!

बिहार में मुद्दा ‘लालूराज’ और ‘सुशासन बाबू’ ही हैं

बिहार चुनाव हमेशा की तरह फिर जाति, बाहुबल और विकास के त्रिकोण में उलझा दिखता है। सामाजिक न्याय की ताकतों की लीलाभूमि रहे इस प्रदेश ने नीतीश कुमार पर लगातार भरोसा जताकर यह दिखाया है कि बिहार अपने सपनों में रंग भरना चाहता है। नीतीश कुमार बिहार की राजनीति के ऐसे नायक की तरह सामने आए हैं, जिन्होंने विकास और सुशासन को बिहार की राजनीति का केंद्रीय विषय बना दिया। उनकी बढ़ती आयु के मुद्दों को छोड़ दें तो आज सारे दल बिहार में विकास की बात करने लगे हैं।

नौकरियों,सुशासन की बात करते हैं- यही नीतिश कुमार और नरेंद्र मोदी की राजनीति की देन है । लालूप्रसाद यादव के पुत्र तेजस्वी यादव की सबसे बड़ी चुनौती अपने माता-पिता के मुख्यमंत्रित्व काल की छाया से मुक्त होना है। कभी बिहार में जातीय चेतना और परिवर्तन के पैरोकार रहे लालूप्रसाद यादव के शासनकाल की कड़वी यादों से प्रदेश मुक्त नहीं हो सका। इस पीड़ा को ही उन दिनों नीतिश कुमार ने समझा और वे सामाजिक न्याय की ताकतों के नए और विश्वसनीय नायक बन गए। भाजपा के सहयोग ने उनके सामाजिक विस्तार में मदद की।

अब नीतिश कुमार बिहार की सामूहिक चेतना के प्रतीक के बन गए हैं। वे असाधारण नायक हैं, जिसके बीज लालू प्रसाद यादव की विफलताओं में छिपे हैं। किंतु इसे इस तरह से मत देखिए कि बिहार में अब जाति कोई हकीकत नहीं रही। जाति, उसकी चेतना, सामाजिक न्याय से जुड़ी राजनैतिक शक्ति अपनी जगह कायम है किंतु वह अब अपमानित और पददलित नहीं रहना चाहती।

अपने जातीय सम्मान के साथ वह राज्य का सम्मान और विकास भी चाहती है। लालू प्रसाद यादव, अपनी सामाजिक न्याय की मुहिम को जागृति तक ले जाते हैं, आकांक्षांएं जगाते हैं, लोगों को सड़कों पर ले आते हैं( उनकी रैलियों में उमड़ने वाली भीड़ को याद कीजिए)- किंतु सपनों को हकीकत में बदलने का कौशल नहीं जानते। वे सामाजिक जागृति के नारेबाज हैं, वे उसका रचनात्मक इस्तेमाल नहीं जानते। वे सोते हुए को जगा सकते हैं किंतु उसे दिशा देकर किसी परिणामकेंद्रित अभियान में लगा देना उनकी आदत का हिस्सा नहीं है।

इसीलिए सामाजिक न्याय की शक्ति के जागरण और सर्वणों से सत्ता हस्तांतरण तक उनकी राजनीति उफान पर चलती दिखती है। किंतु यह काम समाप्त होते ही जब पिछड़ों, दलितों, मुसलमानों की आकांक्षांएं एक नई चेतना के साथ उनकी तरफ देखती हैं तो उनके पास कहने को कुछ नहीं बचता। वे एक ऐसे नेता साबित होते हैं, जिसकी समस्त क्षमताएं प्रकट हो चुकी हैं और उसके पास अब देने लिए कुछ भी नहीं है।

नीतिश यहीं बाजी मार ले जाते हैं। वे सपनों के सौदागर की तरह सामने आते हैं। उनकी जमीन वही है जो लालू प्रसाद यादव की जमीन है। वे भी जेपी आंदोलन के बरास्ते 1989 के दौर में अचानक महत्वपूर्ण हो उठते हैं, जब वे बिहार जनता दल के महासचिव बनाए जाते हैं। दोनों ओबीसी से हैं। दोनों का गुरूकुल और रास्ता एक है। लंबे समय तक दोनों साथ चलते भी हैं। किंतु तारीख एक को नायक और दूसरे को खलनायक बना देती है। जटिल जातीय संरचना आज भी बिहार में एक ऐसा सच है, जिससे आप इनकार नहीं कर सकते।

किंतु इस चेतना से समानांतर एक चेतना भी है, जिसे आप बिहार की अस्मिता कह सकते हैं। नीतिश कुमार ने बिहार की जटिल जातीय संरचना और बिहारी अस्मिता की अंर्तधारा को एक साथ स्पर्श किया। देश का यह असाधारण प्रांत भी है। शायद इसीलिए इस जमीन से निकलने वाली आवाजें, ललकार बन जाती हैं। सालों बाद नीतिश कुमार इसी परिवर्तन के प्रतीक बन गए हैं। इस सफलता के पीछे अपनी पढ़ाई से सिविल इंजीनियर नीतिश कुमार ने विकास के साथ सोशल इंजीनियरिंग का जो तड़का लगाया है, उस पर ध्यान देना जरूरी है।

नीतिश कुमार की सफलताएं मीडिया की नजर में भले ही विकास के सर्वग्राही नारे की बदौलत हासिल हुयी है, किंतु सच्चाई यह है कि नीतीश कुमार ने जैसी शानदार सोशल इंजीनियरिंग के साथ विकास का मंत्र फूंका है, वह उनके विरोधियों को चारों खाने चित्त करता रहा है। उप्र और बिहार दोनों राज्य मंदिर और मंडल आंदोलन से सर्वाधिक प्रभावित राज्य रहे हैं। मंडल की राजनीति यहीं फली-फूली और यही जमीन सामाजिक न्याय की ताकतों की लीलाभूमि भी बनी।

इसे भी मत भूलिए कि बिहार का आज का नेतृत्व वह पक्ष में हो या विपक्ष में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की उपज है। कांग्रेस विरोध इसके रक्त में है और सामाजिक न्याय इसका मूलमंत्र। इस आंदोलन के नेता ही 1990 में सत्ता के केंद्र बिंदु बने और लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने। आप ध्यान दें यह समय ही उत्तर भारत में सामाजिक न्याय के सवाल और उसके नेताओं के उभार का समय है। लालू प्रसाद यादव इसी सामाजिक अभियांत्रिकी की उपज थे और नीतीश कुमार जैसे तमाम लोग तब उनके साथ थे।

लालू प्रसाद यादव अपनी सीमित क्षमताओं और अराजकताओं के बावजूद सिर्फ इस सोशल इंजीनियरिंग के बूते पर पंद्रह साल तक राबड़ी देवी सहित राज करते रहे। इसी के समानांतर परिघटना उप्र में घट रही थी जहां मुलायम सिंह यादव, कांशीराम, मायावती और कल्याण सिंह इस सोशल इंजीनियरिंग का लाभ पाकर महत्वपूर्ण हो उठे। आप देखें तो बिहार की परिघटना में लालू यादव का उभार और उनका लगभग डेढ़ दशक तक सत्ता में बने रहना साधारण नहीं था, जबकि उन पर चारा घोटाला सहित अनेक आरोप थे, साथी उनका साथ छोड़कर जा रहे थे और जनता परिवार बिखर चुका था।

इसी जनता परिवार से निकली समता पार्टी जिसके नायक स्व.जार्ज फर्नांडीज, स्व.शरद यादव, स्व.दिग्विजय सिंह और नीतीश कुमार जैसे लोग थे, जिनकी भी लीलाभूमि बिहार ही था। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ होने के नाते सामाजिक न्याय का यह कुनबा बिखर चुका था और उक्त चारों नेताओं सहित रामविलास पासवान भी अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री बन चुके थे। यह वह समय है जिसमें लालू के पराभव की शुरूआत होती है।

अपने ही जनता परिवार से निकले लोग लालू राज के अंत की कसमें खा रहे थे और एक अलग तरह की सामाजिक अभियांत्रिकी परिदृश्य में आ रही थी। लालू के माई कार्ड के खिलाफ नीतीश कुमार के नेतृत्व में एक ऐसा ओबीसी चेहरा सामने था, जिसके पास कुछ करने की ललक थी।

ऐसे में नीतीश कुमार ने एक ऐसी सामाजिक अभियांत्रिकी की रचना तैयार की जिसमें लालू विरोधी पिछड़ा वर्ग और लालू राज से आतंकित सर्वण वोटों का पूरा कुनबा उनके पीछे खड़ा था। भाजपा का साथ नीतिश की इस ताकत के साथ उनके कवरेज एरिया का भी विस्तार कर रहा था।

अब अगर आपको सामाजिक न्याय और विकास का पैकेज साथ मिले तो जाहिर तौर पर आपकी पसंद नीतिश कुमार ही होंगे। लालू ने अपना ऐसा हाल किया था कि उनके साले भी एक समय उनका साथ छोड़ गए और उनका बहुप्रचारित परिवारवाद उन पर भारी पड़ा। वह जगह भरी थी ओबीसी(कुर्मी) जाति से आने वाले नीतिश कुमार ने। नीतिश ने लालू की संकुचित सोशल इंजीनियरिंग का विस्तार किया, उसे वे अतिपिछड़ों, महादलितों, पिछड़े मुसलमानों और महिलाओं तक ले गए।

बिहार जैसे परंपरागत समाज में पंचायतों में महिलाओं में पचास प्रतिशत आरक्षण देना और शराब बंदी का फैसला साधारण नहीं था। जबकि लालू प्रसाद यादव जैसे लोग संसद में महिला आरक्षण के खिलाफ गला फाड़ रहे थे। तय मानिए हर समय अपने नायक तलाश लेता है। नीतिश कुमार इस निरंतर अपमानित और लांछित हो रही चेतना के प्रतीक बन गए। वे बिहारियों की मुक्ति के नायक बन गए। बिहारी अस्मिता के प्रतीक बन गए।

यह वैसा ही था कि जैसे कभी गुजरात में नरेंद्र मोदी वहां गुजराती अस्मिता के प्रतीक बनकर उभरे और उसी तरह नीतिश कुमार में बिहार में रहने वाला ही नहीं हर प्रवासी बिहारी एक मुक्तिदाता की छवि देखने लगा था। यह बिहार का भाग्य है उसे आज एक ऐसी राजनीति मिली है, जिसके लिए उसकी जाति से बड़ा बिहार है। बिहार को जाति की इसी प्रभुताई से मुक्त करने में नीतिश सफल रहे हैं, वे हर वर्ग का विश्वास पाकर जातीय राजनीति के विषधरों को सबक सिखा चुके हैं।

उनकी सोशल इंजीनियरिंग इसीलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वह विस्तारवादी है, बहुलतावादी है, उसमें किसी का तिरस्कार नहीं है। उनकी राजनीति में विकास की धारा में पीछे छूट चुके महादलितों और पसमांदा (सबसे पिछड़े) मुसलमानों की अलग से गणना से अपनी पहचान मिली है। इस चुनाव में भी केंद्र लालू और नीतिश ही हैं। उनकी राजनीति ही है।

जाति, बाहुबल के अंतविर्रोधों के बीच भी बिहार सुशासन, विकास और पलायन से मुक्ति चाहता है। यही अकेली बात ‘नीतीश कुमार मार्का राजनीति’ के लिए खाद-पानी बन जाती है, परंपरागत तटबंध टूट जाते हैं। देखना है चुनाव परिणाम क्या कहते हैं, बिहार के सजग और चैतन्य मतदाता का जनादेश क्या होता है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और टिप्पणीकार हैं।)

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