पत्रकारिता के नए अध्याय गढ़ने का समय

आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस के बढ़ते दखल और नित नई रंगत के साथ बदलती रोबोटिक्स की दुनिया ने यह तो तय कर ही दिया है कि पत्रकारिता के कुछ नए अध्याय गढ़ने का समय आ गया है। यह इस लिए भी जरूरी है कि पिछले कुछ वर्षों से हम कभी ‘डेथ ऑफ डिस्टेंस’ तो कभी ‘डेथ ऑफ मास ऑडियंस’ तो कभी परंपरागत पत्रकारिता के खत्म हो जाने की घोषणा की गूंज सुनते चले आ रहे हैं। यह अलग बात है कि टेक्नोलॉजी के बलबूते होने वाली इन गूंज का बहुत प्रभाव हमारी पत्रकारीय परंपराओं में पड़ा ही नहीं। भारतीय संस्कृति के लचीलेपन को आत्मसात करके आगे बढ़ती आ रही भारतीय पत्रकारिता बदलावों के बहाव में बही जरूर है, लेकिन बहकी कभी भी नहीं।

याद कीजिए, जब हम इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर रहे थे, तब पूरी दुनिया में सिटीजन जर्नलिज्म यानी नागरिक पत्रकारिता की बयार बह रही थी। फिर कुछ ही वर्षों में टेक्नोलॉजी का ऐसा कमाल हुआ कि ‘एवरीनव इज जर्नलिस्ट’ के जुमले ने पत्रकारिता के अलंबरदारों को चौकन्ना कर दिया। अनायास ही नागरिक पत्रकारिता की डेस्क हटा दी गई और सोशल नेटवर्किंग की गिरफ्त में फंस रहे अपने ऑडियंस के साथ पत्रकारिता ने चलना तय कर लिया। बस, यही वह समय था जब पत्रकारिता के नए-नए अध्याय गढ़े जाने की जरूरत महसूस होने लगी थी। बाद के दिनों में टेक्नोलॉजी के विस्तार ने कई और चुनौतिया ला खड़ी कीं। आज पत्रकारिता के समक्ष चुनौती है अपनी जरूरत और साख को बचाए रखने की। चुनौती है अपनों का साथ बनाए रखने की यानी अपने ऑडियंस को स्वयं से जोड़े रखने की और चुनौती है बाजार में टिके रहने की जुगत लगाए रखने की यानी पूंजी निवेश और मुनाफे की मुठभेड़ को अपने पक्ष में करने की चुनौती बराबर बनी हुई है।

पत्रकारिता के सामने लोगों के बीच अपनी जरूरत और अपनी साख बनाए रखने की चुनौती सबसे महत्वपूर्ण है। वास्तव में इन दिनों पत्रकारिता के लिए सबसे बड़ा संकट उसके प्रति लोगों में विश्वास की कमी से है। फेक न्यूज और पेड न्यूज के बाद पोस्ट ट्रुथ नैरेटिव की भरमार ने कबाड़ा कर रखा है। भारत की पारंपरिक पत्रकारिता से जुड़े पत्रकार और संपादक यह मानते रहे हैं कि वे स्वयं उन लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं और उन्हें समझते हैं, जिन तक वे पहुंचना चाहते हैं। यह बहुत हद तक सही भी है। बदलते समय में तथाकथित रूप से स्वयं को पत्रकारिता का हिस्सा कहने वाले सोशल मीडिया और अन्य ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के माध्यम से जिस तरह फर्जी खबरें और गलत सूचनाएं तेजी से फैल रही हैं, वह न केवल पूरी पत्रकारिता की साख पर प्रश्नचिन्ह लगा रही हैं, बल्कि पत्रकारिता के होने यानी उसकी जरूरत पर ही सवाल पैदा कर रही हैं। एक संकट यह भी है कि इन माध्यमों के साथ होड़ में शामिल कुछ पत्रकारिता संस्थान भी हड़बड़ी और हड़कंप में गलतियां कर दे रहे हैं। नतीजा यह है कि ‘फेक न्यूज’ का शिकार लोग पूरे पत्रकारिता जगत को ही नकार दे रहे हैं। झूठी खबरें, गलत सूचना या फिर दुष्प्रचार पत्रकारिता की विश्वसनीयता को कम करता है और जनता का विश्वास खोता है। कुछ पत्रकारिता संस्थान द्वारा रिपोर्टिंग में पूर्वाग्रह व सनसनीखेजता को बढ़ाना और पारदर्शिता की कमी लाने के कारण भी पत्रकारिता में जनता का विश्वास कम हो गया है। आने वाला समय इसे और अधिक प्रश्रय और प्रसार का अवसर देगा। जाहिर है कि पत्रकारिता को इस चुनौती से निपटने की पुख्ता कोशिश करनी होगी। करना यह होगा कि पत्रकारों को बेहतरीन प्रशिक्षण दिया जाए, उनकी आर्थिक व इनके जीवन की सुरक्षा की गारंटी दी जाए तथा उन्हें नित नई टेक्नोलॉजी से पूरी तरह परिचित रखा जाए। पत्रकारों को भी अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने और जनता के विश्वास को फिर से हासिल करने के लिए ईमानदार और निष्पक्ष रिपोर्टिंग करनी चाहिए। संपादकीय नीति को अधिक पारदर्शी बनाकर भी यह काम किया जा सकता है।

पत्रकारिता के समक्ष दूसरी चुनौती अपने ऑडियंस को अपने से जोड़े रखने की है। जाहिर है कि विश्वास बढ़ाने और साख बचाने से यह बहुत हद तक संभव तो हो ही जाएगा, लेकिन फिर भी टेक्नोलॉजी के सहारे खुद को पत्रकार मान चुके लोगों की भीड़ बढ़ती ही जा रही है। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2025 तक भारत में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या 90 करोड़ तक पहुँच सकती है। दरअसल इंटरनेट तक इसी बढ़ती पहुंच ने डिजिटल पत्रकारों के लिए नए अवसर खोल दिए हैं, जिससे ये अपने ऑडियंस तक आसानी से पहुंच जा रहे हैं, और कुछ अपने फॉलोवर के मन का तो बहुत कुछ अपने मन का कंटेंट परोस दे रहे हैं। इस कंटेंट में बहुत कुछ अधकचरा, फेक और पेड होता है। फिरभी लोग इनकी गिरफ्त में आते जा रहे हैं। हां, इधर कुछ वर्षों में बहुतेरे लोगों को समझ में आने लगा है कि यह मुख्यधारा की पत्रकारिता नहीं है।

बहरहाल यह भी सच है कि भारतीय पत्रकारिता की रीढ़ प्रिंट और टेलीविजन मीडिया थी, लेकिन अब ये डिजिटल प्लेटफॉर्म से प्रतिस्पर्धा कर रही हैं। ऑनलाइन समाचार पोर्टल, सोशल मीडिया और स्वतंत्र कंटेंट क्रिएटर्स की बढ़ती संख्या के कारण भारत में समाचार उपभोग करने का तरीका पूरी तरह बदल गया है। विशेषज्ञों के अनुसार, भारत में 70% से अधिक उपयोगकर्ता अब अपने मोबाइल फोन के माध्यम से डिजिटल समाचार पर निर्भर हैं। दूसरे शब्दों में, भारतीय उपभोक्ता अब टेलीविजन और प्रिंट मीडिया की तुलना में ऑनलाइन समाचार अधिक देखते हैं। नतीजा यह है कि पारंपरिक पत्रकारिता को डिजिटल टेक्नोलॉजी के साथ तालमेल बिठाना आवश्यक होगा।

दरअसल यह समय डिजिटल स्टोरीटेलिंग का है। कम समय में रोचक ढंग से कहानी कहने के अंदाज में अपनी बात कहने का समय है, जिसमें सच्चाई हो और लोग स्वयं से जुड़ाव महसूस कर सकें। जाहिर है कि पत्रकारों को डेटा एकत्र करने, उसकी व्याख्या करने और आकर्षक कहानियाँ तैयार करने की क्षमता को विकसित करना होगा। आंकड़ों की खोज और विश्लेषण में माहिरपन आज की जरूरत बन गया है। इसी के साथ अपनी कहानी के प्रभाव को व्यापकता देने का कम हो रहा है। प्रभावशाली कहानियाँ प्रस्तुत करने की क्षमता पाठकों को आकर्षित करती है और उन्हें शिक्षित करने, मार्गनिर्देशन देने और उनका मनोरंजन करने का काम करती हैं। एक बात और इस अंदाज में नई बनती व्यवस्था में आलोचनात्मक विश्लेषण यानी क्रिटिकल थिंकिंग का कौशल प्राप्त करना जरूरी हो गया है। यह कौशल पत्रकारों को जटिल जानकारी का विश्लेषण करने, भ्रामक सामग्री की पहचान करने और निष्कर्ष तक पहुँचने में मदद करता है।

तीसरी महत्वपूर्ण चुनौती आर्थिक मोर्चे पर खुद को साबित करने की है। वास्तव में पिछली सदी के अस्सीवें दशक में पत्रकारिता ने जब से मीडिया इंडस्ट्री का रूप लिया है तभी से पूंजी निवेश और मुनाफे की मुठभेड़ मचती दिखने लगी थी। बाजार में बने रहने के लिए टेक्नोलॉजी को साथ लेकर आगे बने रहने की होड़ में शामिल होने की मजबूरी सबके पास है। हर कोई अपने रेवेन्यू मॉडल को दुरुस्त करने में लगा हुआ है। इसे देश के प्रमुख हिंदी समाचार-पत्रों की आर्थिक फितरतों से बखूबी समझा जा सकता है। वास्तव में अब हर समाचारपत्र का अपना एक एप है और उसपर अद्यतन खबरों की वेबसाइट पर सहज पहुंच के साथ-साथ सुबह छपकर आए समाचारपत्र को पढ़ने की भी सुविधा है। इस नए रेवेन्यू मॉडल में समाचारपत्र की सदस्यता, विज्ञापन और इन-ऐप खरीदारी शामिल हैं। सदस्यता मॉडल सबसे लोकप्रिय है, जिसमें पाठक एक निश्चित समय अवधि के लिए भुगतान करते हैं। विज्ञापन, जैसे बैनर और इंटरस्टीशियल विज्ञापन, भी राजस्व का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं। कुछ ऐप्स इन-ऐप खरीदारी भी पेश करते हैं, जैसे कि विशेष सामग्री या सुविधाओं तक पहुंच बनाना। बहरहाल यह विषय विस्तार से बातचीत करने का है। हम बस इतना कह सकते हैं कि कोरोना काल के बाद जोर पकड़ने वाले इस रेवेन्यू मॉडल ने समाचारपत्रों के के लिए कुछ हद तक संजीवनी की तरह काम किया है।

पत्रकारिता जगत की एक चुनौती प्रशिक्षित पत्रकारों को पान की भी है। आर्टफीशियल इंटेलिजेंस, वर्चुअल रिएलिटी और रोबोटिक्स की दुनिया में नए-नए नवाचारों के बरक्स मानवीय संवेदना में रची-बसी आत्मीय व सार्थक सृजन की दुनिया को बचाने के लिए जरूरी है कि पत्रकारिता का प्रशिक्षण लेने वालों को इन तकनीकियों से लैस करते हुए तैयार किया जाए। इसके लिए विश्वविद्यालयों और पत्रकारिता का प्रशिक्षण देने वाले संस्थानों को स्वयं के पाठ्यक्रम को नित नया करते रहने की जरूरत होगी।

वास्तव में जब कभी भी पत्रकारिता के भविष्य की बात होती है तो लगता है कि हम अपनी विरासत पर जिस भविष्य को तैयार करते आए हैं, वह इतना भी कमजोर नहीं है कि उसके पुख्ता होने का प्रमाण बार-बार मांगा जाए। लेकिन, यह भी सत्य है कि टेक्नोलॉजी के बलबूते इस बदलती दुनिया और बदलते समय के साथ खुद को नया करते रहना होगा, तभी हम नए समय में नई इबारत लिखने में हम कामयाब हो सकेंगे।

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